द्वितीय गोलमेज सम्मेलन । Second Round Table Conference in Hindi । भारतीय इतिहास ।
दितीय गोलमेज सम्मेलन 📚
SECOND ROUND TABLE CONFERENCE ⬇️
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितंबर 1931, को प्रारंभ हो गया था, किंतु महात्मा जी 12 सितंबर को लंदन पहुंचे। इस समय इंग्लैंड की राजनीतिक स्थिति बहुत परिवर्तित हो गई थी। रैम्जे मैकडॉनल्ड यद्यपि अब भी प्रधानमंत्री थे, किंतु वे एक राष्ट्रीय मंत्री मंडल के प्रधान थे, जिसमें अनुदान और उदार दल के सदस्यों की प्रधानता थी। सर वेजवुड बेन स्थान पर सर सेम्युअल होर , जो पक्के टोरी थे, भारत मंत्री नियुक्त हुए थे। अक्टूबर में इंग्लैंड के हाउस ऑफ कॉमंस के जो निर्वाचन हुए, उनमें अनुदारवादियों को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। इस प्रकार द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की परिस्थितियां भारतीय समस्या के हल के अनुकूल न थी।
महात्मा गांधी की उपस्थिति भी सम्मेलन को सफल नहीं बना सकी। महात्मा गांधी ने कांग्रेस के राष्ट्रीय स्वरूप का प्रतिपादन किया और सुरक्षा बलों व वैदेशिक मामलों पर पूर्ण नियंत्रण सहित स्वराज की मांग की, लेकिन इस मांग का कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ। यद्यपि नवीन विधान से संबंधित कुछ विस्तार की बातें निश्चित हो गई। संघीय न्यायपालिका का ढांचा, संघीय विधानमंडल का संगठन और रियासतों के अखिल भारतीय संघ के प्रवेश से संबंधित कुछ बातें निश्चित की गयी, लेकिन सांप्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकाला जा सका। गांधीजी ने इस समस्या को सुलझाने के लिए नेहरू रिपोर्ट के आधार पर प्रयत्न किया, किंतु सम्मेलन में भाग लेने वाले सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा अल्पसंख्यकों को अनुचित मांगे करने के लिए प्रोत्साहित किए जाने के कारण गांधी जी को अपने इस प्रयत्न में सफलता प्राप्त नहीं हुयी।
सम्मेलन की असफलता (Conference Failure) ⬇️
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 1 दिसंबर 1931 को समाप्त हो गया। यह सम्मेलन पूर्णत्या असफल रहा। महात्मा गांधी, जिनके द्वारा सम्मेलन के प्रारंभ में बहुत अधिक उत्साहपूर्ण विचार व्यक्त किए गए थे। उनके द्वारा अंत में अध्यक्ष के प्रति धन्यवाद का प्रस्ताव प्रस्तावित करते हुए कहा गया कि " उनके और प्रधानमंत्री के रास्ते अलग-अलग हैं। " वस्तुतः ब्रिटिश सरकार भारतीय समस्या का हल निकालने के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं थी। ब्रिटिश सरकार ने सम्मेलन में ऐसी चाल अपनायी की आवश्यक और मूलभूत प्रश्न तो पीछे छूट गए और सारा समय मामूली बातों पर विचार करने और नवीन विवादों को जन्म देने में नष्ट कर दिया गया। इच्छा अथवा अनिच्छा से अधिकांश भारतीय नेता भी ब्रिटिश सरकार के साथ हो गए।
पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन Re Civil Disobedience Movement (1932-34) ⬇️
भारत में महात्मा गांधी की अनुपस्थिति में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलिंगडन के निर्देशन में ब्रिटिश नौकरशाही ने गांधी-इरविन समझौते का खुला उल्लंघन शुरू कर दिया।
दिसंबर, 1931 में जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन से भारत लौटे, उस समय स्थिति ऐसी हो गई थी और लॉर्ड विलिंगडन का रुख इतना कठोर था कि गांधीजी के सामने सविनय अवज्ञा आंदोलन फिर से शुरू करने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहा। इस बार शासन का दमन चक्र बहुत ही अधिक कठोर था। लाठी प्रहार, गोली वर्षा संपत्ति की जब्ती और सामूहिक जुर्माने नित्य के कार्यक्रम हो गए। गांधी जी को बंदी बना लिया गया, कांग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर दिया गया और समाचार पत्रों पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए। 1932 के अंत तक राजनीतिक बंदियों की संख्या 1 लाख 20 हजार तक पहुंच गयी।
अत्यधिक दमन के कारण आंदोलन की शक्ति कम होती जा रही थी। सरकार ने 8 मई, 1933 को गांधीजी को रिहा कर दिया था। 19 मई, 1933 को महात्मा गांधी जी ने आंदोलन 11 सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया। 14 जुलाई, 1933 को जन आंदोलन रोक कर व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया जो 9 महीने तक चलता रहा। 7 अप्रैल, 1934 को इसे भी स्थगित कर दिया गया। अब गांधी जी के नेतृत्व पर पुनः आक्षेप हुवे। कुछ दिनों बाद सरकार ने कांग्रेस पर से प्रतिबंध उठा लिया। 1934 के मुंबई अधिवेशन में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास कर कांग्रेसियों को धारा सभा में प्रवेश करने की इजाजत दे दी।
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