भारत की मिट्टी | Soil of India [PDF] | Gk Anywhere

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किसी भी देश का भौगोलिक अध्ययन करते समय वहां की मिट्टी का अध्ययन करना अत्यंत आवश्यक है। मिट्टी का परोक्ष प्रभाव किसी भी देश की आर्थिक दशा पर पड़ता है। मिट्टी धरातल के 15 सेंमी० गहरी  या मोटी उस पर्त को कहते हैं जिनसे पौधे अपना भोजन ग्रहण करते हैं। वैसे तो मिट्टी की गहराई लगभग 3 मी० से 6 मी० मानी जाती है, किंतु पौधों की जड़ों को आवश्यक भोजन (खनिज लवण, वनस्पति के सड़े-गले अंश, वायु और प्रकाश) धरातल की ऊपरी सतह में ज्यादा पाए जाते हैं। इन तहो की उत्पत्ति धरातल की टूटी हुई शैलों से होती है। मिट्टी के निर्माण में वनस्पति एवं शैलों के टूटे हुए कणो का विशेष महत्व होता है। इन तत्वों पर सबसे ज्यादा प्रभाव जलवायु का पड़ता है। वनस्पति के निर्धारण में तापमान, वर्षा, शैलों की टूटने की गति, वृष्टि, बहते हुए जल और वायु का विशेष महत्व होता है। मिट्टी के निर्माण में पुरानी शैलों के रासायनिक गुण और जलवायु का होना अत्यंत आवश्यक है। जैसे दक्षिण की काली मिट्टी के निर्माण में ज्वालामुखी के लावा शैलों का विशेष महत्व है जिससे इसका रंग काला होता है। इस मिट्टी में लोहे, चूने और एलुमिनियम का अंस पाया जाता है?

" मिट्टी पृथ्वी पर मिलने वाली असंगठित पदार्थों की ऊपरी परत है जो पैत्रक चट्टानों एवं वनस्पतियों के योग से बनती है"

भारत की मिट्टी का वर्गीकरण

CLASSIFICATION OF INDIAN SOIL 
भारत में शैलों के स्वभाव एवं भिन्न - भिन्न प्रकार की स्थानीय जलवायु के कारण अनेक प्रकार की मिट्टियां पाई जाती है। भारत में पाई जाने वाली मिट्टी को सामान्यतः छह भागों में बांटा गया है, जो इस प्रकार हैं -

1. पर्वतीय मिट्टी (Mountain Soil)
2. जलोढ़ मिट्टी (Alluvium Soil)
3. मरुस्थलीय मिट्टी (Desert Soil)
4. काली मिट्टी (Black Soil)
5. लाल मिट्टी (Red Soil)
6. लेटेराइट मिट्टी (Lateritic Soil)

1. पर्वतीय मिट्टी (Mountain Soil)

जिस प्रकार विषुवत रेखा से दूर चलने पर ताप और वर्षा की विभिन्नता के कारण अलग - अलग प्रकार की मिट्टी के कटिबंध मिलते हैं, उसी प्रकार पर्वतों के नीचे से ऊपर जाने पर कई प्रकार की मिट्टियां मिलती हैं। नीचे के ढाल पर भूरी मिट्टी, इसके ऊपर हल्की भूरी-मिट्टी और पर्वतीय भाग पर भूरे रंग की मिली जुली-मिट्टी मिलती है। भारत में लगभग 2 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर पर्वतीय मिट्टियों का विस्तार है। हिमालय के पर्वतीय भाग में नवीन, पथरीली,संरंध्र तथा चूना युक्त मिट्टियां पाई जाती है। दक्षिणी भाग में कंकड़, पत्थर एवं मोटे कणो वाली वायु युक्त मिट्टी तथा देहरादून, नैनीताल और पौड़ी में चूना युक्त मिट्टी पाई जाती है। हिमालय के ऊंचे भाग में आग्नेय चट्टानों से निर्मित मिट्टी पाई जाती है। इस मिट्टी पर चाय की खेती, फलों की खेती और सूखे मेवों की खेती अच्छी होती है। सिंचाई की सुविधा मिलने पर इस मिट्टी में गेहूं, चावल आदि की खेती अच्छी होती है।

2. जलोढ़ मिट्टी (Allhvium Soil)

यह मिट्टी नदियों द्वारा लाई गई भूमि के संचय से बनी है। यह नवीन और उपजाऊ मिट्टी है। इस मिट्टी का महत्व इसलिए है क्योंकि यह अत्यंत उपजाऊ है और यह भारत के 7.7 लाख वर्ग किमी० में फैली है। भारत के विशाल उत्तरी मैदान में नदियों द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में बहा कर लाई गई जीवांश युक्त उर्वरक मिट्टी मिलती है जिसे 'काँप' या 'कछारी' मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी देश के 40% भाग पर पाई जाती है। इस मिट्टी के निर्माण में गंगा, यमुना और सतलज नदियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जलोढ़ मिट्टी पूर्वी तटीय मैदानों, विशेष रुप से महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टायी प्रदेशों में सामान्य रूप से मिलती है। बाढ़ के समय नदियों के किनारे नवीन जलोढ़ मिट्टी का विस्तार अधिक हो जाता है। जिन भागों में बाढ़ का जल नहीं पहुंच पाता वहां पर पुरानी जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है जिसे 'बांगर मिट्टी (Bangar Soil)' कहते हैं।
नदियों के जिन भागों में नदियों द्वारा बहा कर लाई गई नवीन काँप मिट्टी का जमाव पाया जाता है उसे 'खादर मिट्टी (Khandar Soil)' कहते हैं। नवीन जलोढ़ मिट्टी पुरानी जलोढ़ मिट्टी से ज्यादा उर्वरक होती है। जलोढ़ मिट्टी ज्यादा उर्वरक होती है, जिसमें सभी प्रकार की फसलों को उत्पन्न करने की क्षमता होती। इस मिट्टी में चूना, पोटाश और फास्फोरिक अम्ल अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। इन मिट्टियों में नाइट्रोजन और जैविक पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं। भारत की 50% जनसंख्या के लिए कृषि कार्य द्वारा भोजन इसी मिट्टी पर उत्पन्न किया जाता है। इसमें गेहूं,गन्ना,चावल,तिलहन, तंबाकू और जूट की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।

3. मरुस्थलीय मिट्टी (Desert Soil) 

मरुस्थलीय मिट्टी थार के मरुस्थल और उसके निकटवर्ती शुष्क प्रदेशों में पाई जाती है। इस मिट्टी के कण बड़े होते हैं। इस मिट्टी को स्थानीय भाषा में कल्लार, ऊसर,थूर, तथा शंकड आदि नामों से पुकारा जाता है। इस मिट्टी में क्षारीय एवं लवण युक्त तत्वों की मात्रा ज्यादा पाई जाती है। इस मिट्टी में जल - ग्रहण करने की क्षमता नहीं होती है। इस मिट्टी में जीवाणुओं का भी अभाव रहता है। इस मिट्टी का विस्तार 114 लाख हेक्टेयर पर है। इस मिट्टी के कण असंगठित नहीं होते जिससे वायु इसको एक स्थान से दूसरे स्थान पर उडाकर आसानी से ले जाती है। इस मिट्टी में वायु और प्रकाश का प्रवेश भी आसानी से हो जाता है। इस मिट्टी में उपजाऊ क्षमता कम होती है परंतु सिंचाई के द्वारा इन मिट्टियों में ज्वार ,बाजरा, मूंगफली, तथा उड़द आदि फसलों की खेती की जाती है। इस मिट्टी का विस्तार पश्चिमी राजस्थान,गुजरात, दक्षिणी पंजाब तथा दक्षिणी-पश्चिमी हरियाणा में पाया जाता है।

4. काली मिट्टी (Black Soil)

इस मिट्टी का निर्माण लावा युक्त पदार्थों से हुआ है। प्राचीन काल में दक्षिण के पठार में ज्वालामुखी के उदगार से लावा बहकर धरातल के ऊपर फैल गया और ठंडा होकर ठोस रूप में जम गया जो आज काली मिट्टी के रूप में स्पष्ट हो गया है। इस मिट्टी को 'काली मिट्टी (Black Soil) या 'रेगुर मिट्टी (Regur Soil)' भी कहते हैं। इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अधिक होती है। इसमें लोहा,फास्फोरस, चूना, मैग्नीशियम,एलुमिनियम और जीवांश के तत्वों की मात्रा अधिक पाई जाती है। इस मिट्टी का विस्तार लगभग 5.1 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में है। महाराष्ट्र, सौराष्ट्र,मालवा और दक्षिण मध्य प्रदेश के पठारी भागों में यह मिट्टी विस्तृत है। इस मिट्टी का विस्तार दक्षिण में गोदावरी तथा कृष्णा नदियों की घाटियों में मिलता है। इस मिट्टी के निर्माण में जलवायु-दशाएं भी महत्वपूर्ण है। इस कारण इस मिट्टी का विस्तार लावा पठार के अलावा अन्य जगहों पर भी है।
इस प्रकार की मिट्टी कपास की कृषि के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। इसलिए इसे ' कपास की काली मिट्टी' कहते हैं। पानी पडते हैं यह मिट्टी चिपचिपी हो जाती है। लसदार होने के कारण इस में नमी काफी समय तक बनी रहती है। इसलिए इस मिट्टी में सिंचाई की आवश्यकता कम होती है। इस मिट्टी में कुछ दोष भी हैं। सूखने पर यह मिट्टी बहुत कड़ी होकर फट जाती है। जिससे भूमि में दरार पड़ जाती है। इस तरह की स्थिति में हल चलाना कठिन हो जाता है। उर्वरता के कारण यहा मिट्टी सबसे ज्यादा उपयोगी है। इसमें बिना खाद डाले ही खेती की जा सकती है।

5. लाल मिट्टी (Red Soil)

इस मिट्टी का रंग लाल इसलिए होता है क्योंकि गर्मी के दिनों में कैपिलरी छिद्रों द्वारा मिट्टी पर लोहे का जंग उतर जाता है। जंग आने से यह लगने लगता है कि इस मिट्टी का निर्माण उन शैलों के टूटने से हुआ होगा जिसमें लोहे का अंश अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसका विस्तार तमिलनाडु राज्य में ज्यादा है। यह मिट्टी उष्ण कटिबंधीय है जो ताप्ती नदी की उत्तरी सीमा पर बहुतायत में मिलती है। ताप्ती नदी के उत्तर में बुंदेलखंड की आर्कियन शैलों से प्राप्त मिट्टी तथा असम में पाई जाने वाली मिट्टी का रंग भी लाल है। दक्षिण में छोटा नागपुर का पठार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश,आंध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा दक्षिण पूर्वी महाराष्ट्र राज्य में इस प्रकार की मिट्टी पाई जाती है। इस मिट्टी में फास्फोरस, नौषजन तथा वनस्पति के सड़े - गले अंशों का अभाव होता है इसलिए यह मिट्टी अनउपजाऊ प्रकार की मिट्टी है। इस मिट्टी में ज्वार बाजरा की खेती ही होती है।

6. लेटराइट मिट्टी (Lateritic Soil)

लेटराइट मिट्टी का रंग भी लाल और हल्का पीला होता है। यह मिट्टी बड़े कण वाली होती है। इस मिट्टी में कंकड़ और पत्थर के टुकड़े अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। यह मिट्टी अनउपजाऊ प्रकार की है इसलिए लेटराइट मिट्टी के प्रदेशों में जनसंख्या और वनस्पति का अभाव रहता है। इस लेटराइट मिट्टी में मैग्नीशियम, नौषजन और चूने का अभाव रहता है जो कि पौधों का मुख्य भोजन है।

लेटराइट मिट्टी दक्षिण के पठार और पहाड़ियों के मुख्य मिट्टी है। इस प्रकार की मिट्टी उष्ण-कटिबंध के उन भागों में ज्यादा पाई जाती है जहां मानसूनी वर्षा अधिक होती है। अधिक वर्षा की वजह से मिट्टी में पाई जाने वाली सिलिका पानी के साथ बह जाती है। इसमें एलुमिनियम आयरन ऑक्साइड तथा मैग्नीशिया अंश ज्यादा पाया जाता है। मध्य प्रदेश के पूर्वी घाट, मालाबार तट, दक्षिणी महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजमहल और असम में यह मिट्टी पाई जाती हैं। जुताई एवं खाद का इस्तेमाल करके इसमें ज्वार, बाजरा,गेंहू, दलहन आदि की फसलें उत्पन्न की जाती है। यह मिट्टी भारत के 8 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र पर फैली है।

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